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Thursday, September 27, 2007

मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूंढ लेती है

मेरी खामोशियों में भी फसाना ढूंढ लेती है
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूंढ लेती है
हकीकत जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को
मगर हर आंख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है
न चिडि़या की कमाई है न कारोबार है कोई
वो केवल हौसले से आबोदाना ढूंढ लेती है
समझ पाई न दुनिया मस्लहत मंसूर की अब तक
जो सूली पर भी हंसना मुस्कुराना ढूंढ लेती है
उठाती है जो खतरा हर कदम पर डूब जाने का
वही कोशिश समन्दर में खजाना ढूंढ लेती है
जुनूं मंजिल का, राहों में बचाता है भटकने से
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूंढ लेती है

1 comment:

सागर नाहर said...

जय जिनेन्द्र सा.
क्या बात है आपने अब तक ४० पोस्ट लिख ली और किसी को पता तक नहीं??
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका हार्दिक स्वागत है, आप का लिखा अन्य लोगों तक पहुँचे उसके लिये आप नारद पर अपने चिठ्ठे( ब्लॉग ) का पंजीकरण करवाईये। नारद की तरह अन्य तीन एग्रीग्रेटर भी है, और आपकी तथा मेरी तरह हिन्दी में लिखने वाले भी कम से कम एक हजार।
किसी भी तकनीकी जानकारी के लिये मेल करें sagarnahar et gmail.com
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल