इश्क के फूल भी खिलते हैं, बिखर जाते हैं
ज़ख्म कैसे भी होँ, कुछ रोज़ में भर जाते हैं
उन ख्वाबों में अब कोई नही और हम भी नही
इतने रोज़ से आये हैं, चुप चाप गुज़र जाते हैं
नर्म आवाज़, भोली बातें, मोहज्ज़ाब लहजा
पहली बारिश मॆं ही, सब रंग उतर जाते हैं
रास्ता रोके खादी है, वही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या के किधर जाते है
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